मंदार पर्वत और मूल कैलाश

भगवान शिव और प्राचीन  कैलाश का वर्णन -
(सावन पर विशेष)
वामन पुराण में यह स्पष्ट उल्लेख है कि "सप्तर्षि ने मंदार गिरि (मंदार पर्वत) पर आकर गिरिजा (हिमवान पुत्री) को बधू बनाने के लिए आग्रह कर शिव को राजी किया । तब भगवान शिव वैवाहिक विधि संपन्न करने के लिए देवगंधर्वों , दूतों, भूतों, ब्रह्मा, विष्णु सहित महान कैलाश पर्वत(कैलाश पहाडी, देवघर) पर गये ।
    "आसाद्य मन्दरगिरि भूयो$वन्दत शंकरम, ततस्तस्मात्महाशैलं कैलासं सह देवत:... जगाम भगवान शर्व.... वैवाहिक विधिम" ।
    उधर कैलाश पर्वत पर हिमवान के गृह धूमधाम हो ही रहा था कि क्षणमात्र में शिव पर्वतराज हिमालय कैलाश पर पहुंच गये । वैवाहिक विधि संपन्न होने पर शिव पार्वती अपने भूतगणों के साथ मंदराचल पर चले आयें।
        " सम्पूजित: पर्वतपार्थिवेन स मन्दरंशीघ्रमुपाजगाम" (वा० रा०)
  __________________________________   प्रजापति दक्ष ने सती को अपनी पुत्री होने पर भी कपाली की पत्नी समझकर निमंत्रण के योग्य न मानकर उन्हें यज्ञ में नहीं बुलाया । इसी बीच देवी का दर्शन करने के लिए गौतम पुत्री जया सुंदर गुफा वाले पर्वत श्रेष्ठ मंदार पर गयी -
                " एतस्मित्रन्तरे देवीं द्रुष्टं गौतमनन्दिनी , जया जगाम शैलेन्द्रं मन्दरं चारुकन्दरम"
 विजया ने सती से कहा " विजये! जयंती और अपराजिता अपने पिता गौतम और माता अहिल्या के साथ वे यज्ञ में निमंत्रित होकर चली गयी है , वहां जाने के लिए उत्सुक मैं आपसे मिलने आयी हूं।" सभी ऋषि पत्नियों तथा देवगण वहां गये हैं । है मौसी ! (मातृष्वस)
 पत्नी सहित शशांक भी उस यज्ञ में गये हैं ।चौदह लोकों के समस्त चराचर प्राणी दक्ष यज्ञ में गये हैं । वे सभी निमंत्रित हुए हैं ।क्या आप निमंत्रित नहीं हैं?
    वज्रपात के समान जया की इस बात को सुनकर क्रोध एवं दुख से भरकर सती ने प्राण छोड दिये  ।
 अत: सती का शरीर पंचतत्व में विलीन मंदार पहाड पर ही हुआ था । सती को मृत देखकर क्रोध एवं दुख से विलाप करती हुई शंकर से जया बोली " मेरी माता की बहन को अपमान सहन नहीं हुआ ।आंतरिक दुख की ज्वाला से वह दग्ध हो गयी ।"
जया के इस अमंगल वचन को सुनकर शिव के शरीर से भयंकर अग्नि की तेज ज्वालाएँ निकलने लगी । क्रोध में शिव के शरीर एवं रोम से सिंह के समान मुखवाले वीरभद्र सहित आदि बहुत से रुद्रगण उत्पन्न हो गये । अपने गणों से घिरे भगवान शिव मंदार पर्वत से कैलाश(कैलाशघाटी, जिलैबियामोड, देवघर) गये और वहाँ से देवघर की ओर गये जहाँ दक्ष यज्ञ कर रहे थें।
यज्ञवेदी को चारों ओर से घेरने के लिए जया सहित सभी गणों के साथ महाबली वीरभद्र हो गये ।
  "गणे: परिवृतस्तस्मान्मदराद्धि मसाहवयम,
  गत: कनरवते तस्माद यत्र दक्षो$यतृक्रतुम"
   जया पूर्व दक्षिण दिशा (आग्नेयकोण) में खडी हो गयी और मध्य में क्रोध से भरे त्रिशूल लिये शंकर खडे हो गये । तदन्तर विष्णु आदि सभी देवों द्वारों शंकर के साथ भयंकर महासंग्राम हुआ था ।
     कई वर्षो तक शिव, सती के विरह में यत्र तत्र पागलों की भांति घूमने लगे । महर्षियों ने शिव के लिंग को पृथ्वी पर गिरा दिया । इसके बाद पृथ्वी , पर्वत , नदियां, तथा चराचर पूर्ण समस्त पाताल लोक कांप उठें ।पृथ्वी में कहीं पर जल भर आया तो कहीं पर्वत निकल आया ।     
   (  पृथ्वी पर प्रथम भौगोलिक परिवर्तन आज से अरबों वर्ष पूर्व हुआ ।भागलपुर बरारी स्थित एकमुखी शिवलिंग इसके साक्ष्य है ।) https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=366994560090939&id=100003411950332
       तब ब्रह्मा , विष्णु आदि सभी देवों ने दारुकवन (वासुकीनाथ, दुमका , झारखंड)  में स्तुति करने लगें । दारुकवन में इस प्रकार  स्तुति किये जाने पर श्रेष्ठ हर (शिव) ने अपने स्वरुप में प्रकट होकर कहा -" देवों! यदि सभी देवता मेरे लिंग की पूजा करना स्वीकार करें तब मैं पृथ्वी पर स्थिर शांत हो जाउंगा ।" तब विष्णु ने कहा " ऐसा ही होगा ।"  उन्होनें फिर ब्रह्माजी सहित चारों वर्णों (हर, शिव, महादेव, शंकर) को लिंग अर्चना का अधिकारी बनाया । उन शिव भक्तों का प्रथम संप्रदाय शैव, द्वितीय पाशुपात, तृतीय कालमुख और चतुर्थ संप्रदाय कापालिक या भैरव नाम से विख्यात हुआ । सर्वप्रथम ब्रह्मा और वशिष्ठ द्वारा भागलपुर बूढानाथ में शिवलिंग की स्थापना की गयी ।
  महाव्रती साक्षात कुबेर प्रथम कापालिक या भैरव संप्रदाय के आचार्य हुए थें। जिन्होनें कैलाश पहाडी, जिलेबियामोड पर महकाल शिवलिंग की स्थापना की थी ।
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    प्राचीन समय में देवश्रेष्ठ शिवजी द्वारा धनुषवाण सहित कन्दर्प (काम) देवताओं में प्रथम पूजित हो देवों द्वारा "अनंग" कहा गया और तभी से अनंग के नाम पर अंगदेश का नाम "अंग" पड गया । इस तरह का प्रसंग विभिन्न पुराणों में मिलता है । इस तरह अंगदेश की स्थापना सृष्टि के आदिकाल में हुई ।
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    कैलाश का मंदार क्षेत्र में होने का प्रमाण -  "तुषारचय संकाशो मन्दरश्चैव पर्वत: हिमको राशि _ सदृश मंदराचल " (महाभारत खिलभाग हरिवंश पुराण)
  स्पष्ट है कि हिमयुग में मंदराचल हिम से आच्छादित था । अत: सृष्टि के आदिकाल से हिमालय मंदार मेरु ही रहा है । 
     मंदराचल की कंदराओं में सिंह सुशोभित हो रहे थें  " चंद्राशुविमलै: सिहैं भूषितं हेमसंचयम"
                               (महाभारत खिलभाग हरिवंश)
          चंद्रमा की किरणों के समान सफेद सिंह उस पर्वत (मंदराचल) की शोभा बढा रहे थें -"हिमवंतमुपाश्रित्यं मेरु मन्दरमेव वा "
     वाल्मीकि रामायण के ये श्लोक यह साबित करते हैं कि मंदार मेरु और कैलाश एक ही है । यानी मंदार पर्वत (बौंसी, बिहार) को ही कैलाश कहा गया है ।
    सूर्यपुराण साम्यक्रीडादि वर्णन में कहा गया है कि " भगवान शिव पार्वती के साथ मंदार गुहा में रमण करते  थें ।वहीं अग्निदेव सशरीर शंभू के गुफा में चले गये थें । वहाँ गौ के दूध के समान आभा वाले पार्वती के वाहन सिंह को देखा था ।" इसी तरह का उल्लेख महाभारत खिलभाग हरिवंशपुराण, शिवपुराण, कूर्मपुराण आदि में भी  है । 
       वामनपुराण में यह स्पष्ट उल्लेख है कि " मंदराचल पर से शिव ने कश्यप, अत्रि, वशिष्ठ , विश्वामित्र, गौतम, भारद्वाज, अंगिरा , आदि ऋषि को साथ लेकर हिमवान के यहां गये और फिर लौटकर मंदराचल पर चले आये।" इससे स्पष्ट है कि इन सबों का वास स्थान मंदार पर ही था ।
     वामनपुराण के एक प्रसंग से यह भी साबित होता है कि " दनुदैत्य अंधकासुर ने करोडो वर्ष पूर्व मंदार वासी शिव पर आक्रमण किया था जिसमें विभिन्न तरह के रथों एवं आयुधों का प्रयोग हुआ था - अंधको रथमास्काय .......प्रमाणत:......... आच्छादितो शिखर: मन्दर:" ।  अंधकासुर जिस रथ पर सवार था वह चार सौ हाथ का था । इधर मंदार पर भगवान शिव के रक्षक मंदराचल पर्वत को चारों ओर से घेरकर सुरक्षा का कडा प्रहरी का काम किया था । इनके पास दिव्यास्त्र थें।
            उपरोक्त प्रमाण से यह स्पष्ट होता है कि भगवान शिव का वास स्थान मंदार पर्वत ही था । जो अभी बिहार के बांका जिले में उपेक्षित पडा हुआ है । (बिशेष प्रमाण के लिए मेरे ग्रंथों को देंखें)

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