राम जन्मभूमि का प्रमाण
रामजन्मभूमि और अयोध्या का प्रमाण - (क्या अयोध्या मंदार पर्वत पर स्थित थी )
(कृप्या पूरा पोस्ट पढें)
वायुपुराण , हरिवंशपुराण और ब्रह्माण्ड पुराण के अनुसार सांतवें मन्वन्तर के २४वें त्रेता में रामावतार सिद्ध होता है । चौबीसवें त्रेता के सांतवें मन्वन्तर में राम जन्म मानने पर राम का जन्म काल लगभग दो करोड वर्ष पूर्व ठहरता
है - " चतुर्विशे युगे विश्वामित्रपुर: सर : रामो दशरथस्यास्य पुत्र पद्मायतेक्षण :" ।
महाभारत के अनुसार त्रेता और द्वापर की संधि में श्रीरामावतार सिद्ध होता है-" संध्यशे समनुप्राप्ते त्रेताया द्वापरस्य च अहं दाशरथो रामों भविष्यामि जगत्पति:" ।।
उक्त रीति के अनुसार अनादिकाल से अयोध्या श्रीरामजन्मभूमि है । महर्षि वाल्मीकि ने अयोध्या को आदिराजा इक्षकवाकु की राजधानी माना है - " मनु प्रजापति: पूर्वमिक्षकवाकुश्च मनो: सूत: , तमिक्षकवाकुमयोध्याया राजान विधिपूर्वकम " । (वा० रा० १/७०/२१)
श्रीमदभागवत में यह स्पष्ट उल्लेख है कि "आदि राजा मनु का वास स्थान ब्रह्मावर्त है , जहाँ प्राची सरस्वती बहती है -" ब्रह्मावर्त मनो क्षेत्रे यत्र प्राची सरस्वती " ।
आगे यह भी स्पष्ट कहा गया है कि " मनु की राजधानी वहिर्ष्मतिपुरी थी " । यह वहिर्षमतिपुरी कहाँ थी ? इसका उत्तर हमें पद्मपुराण में मिल जाता है -" वहिर्णियोग्डमलदा मागधा मानवधारा "
अर्थात " अंगदेश में ही वहिर्ष्मतिपुरी थी " ।
नारदपुराण में यह स्पष्ट उल्लेख है कि "सरयू के तट पर मंदार के नीचे एक वेदिका बनी हुई है और उसके ऊपर एक कमल का आसन बिछा हुआ है , जिस पर श्याम वर्ण वाले श्रीराम वीरासन मुद्रा में बैठे हैं , उनका दाहिना हाथ ज्ञानमुद्राओं से विभूषित है । उन्होनें वायें ऊरु पर बायें हाथ रख छोडे हैं -" सरयूतीरे मन्दारवेदिका पंकजासेन श्यामां वीरासनासीन ज्ञान मुद्रोपशोभित:" (नारदपुराण, पूर्वभाग , तृतीयपाद)
इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि करोडों वर्ष पूर्व सरयू के तट पर मंदार अवस्थित था और सरयू के तट पर मंदार की चोटी के शिखर पर राम का अवतार हुआ । अभी भी मंदार (बौंसीं, बांका, बिहार) के शिखर पर भगवान राम के चरण चिन्ह एवं गर्भगृह को देखा जा सकता है । जैनियों ने अभी इस स्थान पर वासुपूज्य की प्रतिमा स्थापित कर दी है और राम के चरण चिन्ह को वासुपूज्य का चरण चिन्ह मान लिया है ।
वाराहपुराण में भी यह स्पष्ट उल्लेख है कि "गंगा के दक्षिण तट पर विंध्य पर्वत के पिछले भाग में मेरा एक परम गुह्य एकांत स्थान है , जिसे मेरे प्रेमी भक्त "मंदार" के नाम से पुकारते हैं । वहीं श्रेता में "राम" नाम से प्रसिद्ध एक महान प्रतापी पुरुष का प्राक्टय होगा, वे वहाँ मेरे विग्रह (प्रतिमा) की स्थापना करेंगें , इसमें संदेह नहीं ।" स्मरण रहे वाराह की विशाल प्रतिमा मंदार क्षेत्र से प्राप्त हो चुकी है जो अभी भी भागलपुर संग्रहालय में उपेक्षित पडी हुई है ।
वाराहपुराण के इन तथ्यों से रामजन्मभूमि का स्पष्ट प्रमाण के साथ ही यह रहस्य भी खुलता है कि मूल स्वर्गगंगा भागलपुर वटेश्वर सुल्तानगंज की ही गंगा रही है । चूकिं रामावतार से आजतक गंगा मंदार के उत्तरी बाहों में प्रवाहमान बनी हुई है ।
स्कंदपुराण में जिस सरयू जल में स्नान करके पिण्डारक पूजन करने का निर्देश है तथा सरयू के तट पर अयोध्या की रक्षा के लिए नियुक्त योद्धा का वर्णन है , उस पिण्डारक स्थान को अभी भी मंदार के पूरब दक्षिण कोण पर स्थित पौडेया प्रखंड के पिण्डारक पहाड पर देख सकते हैं । जो गुफा, झरना और वनों से परिपूर्ण है ।यह पिण्डारक स्थान करोडों वर्ष पूर्व से आजतक सुरक्षित अपना अलग पहचान बनाये हुए है।
पुराणकथित तथा शास्त्र समर्थित इन ऐतिहासिक स्थानों की अनदेखी नहीं कर सकते । इसी पिण्डारक वन, पिण्डारक पहाड के पश्चिम में मंदार पर्वत पडता है ।
यही नहीं स्कंदपुराण के वैष्णवखण्ड के अयोध्या महात्मय के अनुसार " अयोध्या विष्णु के सुदर्शन चक्र पर बसी है ।" अभी भी विद्वान चिंतक मंदार पर्वत पर आकर विष्णु चक्र से विभूषित "चक्रावर्त महाकुण्ड" को देख सकते हैं ।इस चक्रावर्त कुण्ड का नाम "चक्रतीर्थ" है - " चक्रावर्त महाकुण्डम विष्णुश्क्रविभूषितम् । यत्र सनाहतो नित्यं शेषशायी जनार्दन:।।"
स्कंदपुराण वैष्णव खंड में उल्लेख है कि " ब्रह्माजी ने अयोध्या में ब्रह्मकुण्ड की स्थापना की थी । इसी प्रकार यहाँ भगवती सीता द्वारा निर्मित एक सीताकुंड भी है । जिसे भगवान श्रीराम ने वर देकर समस्त कामनाओं को पूर्ण करनेवाला बना दिया । इसमें स्नान करने से मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है ।अयोध्या में सहस्त्राधार से पूर्व स्वर्गद्वार है ।" अभी भी मंदार के चक्रतीर्थ से उत्तर पूरब नरसिंह गुफा के समीप आकाशगंगा, सीताकुंड और शंखकुंड नामक जलाशय है । "सीताकुंड" जलाशय बहुत ही बडा है जो प्राकृतिक जलाशय है । इसके उत्तर में विष्णुकुंड , रामकुंड, लक्ष्मणकुंड, पर्वत के मूलभाग से कुछ ऊपर अवस्थित है । शेषशायी विष्णु की मूर्ति राम, कृष्ण एवं बलराम तक के साक्ष्य हैं।
विष्णु व राम कृष्ण के चरण चिन्हों से विभूषित मंदराचल का कालिदास ने अपने सुप्रसिद्ध काव्य कुमारसंभवम में भी उल्लेख किया है -" पद्मनाभचरणड्किताश्मसु प्राप्तवत्स्वमृताविप्रेषोनवा :। मन्दरस्य कटकेषु चावसत्पार्वतीवदन पदकमषटपद:" ।।
(कुमारसंभवम , अष्टम सर्ग)
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विभिन्न पुराणों में कोशी का उल्लेख सप्रसंग हुआ है । यही कोशी" महानदी " के नाम से विख्यात है -" कौशिकीति समाख्याता प्रवृजेय महानदी " । इस कोशी को अभी भी नवगछिया से लेकर सहरसा, मधेपुरा , पूर्णिया आदि जिलोन में प्रवाहमान देखा जा सकता है जो बरसात के मौसम में समुद्र सा दृश्य उत्पन्न करती है ।
भारत के प्राचीन भूगोल, "पुराणों के भुवनकोष" नामक अध्याय , कनिंघम का प्राचीन भूगोल तथा नंदलाल दे का प्राचीन तथा मध्यकालीन भारत के भौगोलिक कोश आदि ने एक स्वर से "कोशी नदियों के प्रदेश में प्राचीन काल में कोशल, वैशाली, विदेह आदि राज्यों तथा उनके मरण होने पर मल्ल तथा बज्जिसंघ के गणों की स्थापना हुई थी" का उल्लेख किया है ।
महाभारत के वनपर्व में कौशिकी प्रसंग का वर्णन है । इसमें कहा गया है कि " कोशी के तट पर कश्यप ऋषि के वंशज विभाण्डक ऋषि का आश्रम था । उसी विभाण्डक का पुत्र "श्रृंगी" ऋषि था । जो बडा भारी तपस्वी और संयतेन्द्रिय था । जिसने राजा दशरथ के लिए पुत्रेष्टि यज्ञ करवाया था । " अभी भी बिहार के मधेपुरा (कोशी क्षेत्र) में सिंहश्वेरनाथ मंदिर प्रसिद्ध है जो अत्यंत प्राचीन है । इसे श्रृंगेश्वर धाम भी कहा जाता है । भगवान विष्णु ने साक्षात इसका निर्माण करवाया था ।
पुराणों में भी यह स्पष्ट उल्लेख है कि " श्रृंगी ऋषि का आश्रम अंगदेश के कोशी तट पर अवस्थित था । "
महाभारत में यह भी स्पष्ट कर दिया गया है कि " विश्वामित्र का आश्रम भी कौशिकी तट पर स्थित था ।" इस स्थान को गंगा , यमुना , सरयू के निकट बताया गया है । स्मरण रहे कि विश्वामित्र राम के गुरु थे ।
कालिदास के काव्य "कुमारसंभवम में कोशिकी तट को इंद्र, विष्णु, ब्रह्मा और शिव देवताओं के पारस्परिक मिलन का पूर्व निर्दिष्ट स्थल बताते हुए लिखा गया है कि " कौशिकी तट पर साक्षात भगवान का निवास है।" अभी भी इन क्षेत्रों में वरुणेश्वर महादेव एवं सिंहेश्वर महादेव का दुर्लभ शिवलिंग यहां मौजूद है ।
पौराणिक ग्रंथों के अनुसार "कौशिकी क्षेत्रों में कुशिकाश्रम , कौशिकी, चंपाकरण्य, ज्येष्टिल, कन्यासंवेद्य, निश्चिरा संगम , ताम्रारुण, नंदिनीकूप, कालिकासंगम, उर्वशीतीर्थ, कुंभकर्णाश्रम तथा कोकामुख आदि प्रसिद्ध तीर्थ थें ।
वाराहपुराण के अनुसार " जलबिन्दु, तंगकूट, अग्निसर, ब्रह्मसर, धेनुवट , धर्मोध्दव, कोटिवट, पापप्रमोचन, यम व्यसनक, मांतगाश्रम , वज्रभव, शुकरुद्र, बिष्णुतीर्थ, मतस्यशिला , वाराहतीर्थ , अग्निसत्यपद, इंद्रलोक , पंचशिख , वेदधारा , द्वादशादित्य कुंड , लोकपाल स्थल, स्थल कुंड , सोमगिरि, सोमाभिषेक आदि कौशिकी क्षेत्र में अवस्थित थे।
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वशिष्ठ की जन्मस्थली - अयोध्या के नरेश वशिष्ठ गोत्र से संबंधित थें । वशिष्ठ उनके वंशानुगत पुरोहित थें । भविष्यपुराण उत्तरपर्व में यह स्पष्ट उल्लेख है कि " मित्र और वरुण ने मंदराचल पर उर्वशी नामक अप्सरा से संपर्क स्थापित किया और अपना तेज (वीर्य) एक कुंभ में डालकर रख दिया , जिससे बाद में अगस्त्य जी और वशिष्ठ जी का जन्म हुआ । " स्मरण रहे वशिष्ठ राम के कुलगुरु थें , जिनके द्वारा स्थापित वृध्देश्वर महादेव (बूढानाथ, भागलपुर , बिहार) अभी भी भागलपुर क्षेत्र में स्थित है । इस मंदिर के तहखाने से मिले प्राचीन ताम्रपत्रों से इस सत्यता की पुष्टि होती है ।
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ऋषभदेव की जन्मस्थली और अयोध्या -
जैन ग्रंथों (विविधतीर्थकल्प) में अयोध्या को ऋषभ, अभिनंदन, सुमति, अनंत और अचलभानु इन मुनियों का जन्म स्थान माना है ।
पुराणों के अनुसार "नाभि ने संतान प्राप्ति के लिए मंदार की घाटी में यज्ञ किया । जिसके प्रभाव से ऋषभदेव जी का जन्म हुआ । ये दिगंबर मुनियों में सर्वश्रेष्ठ मुनि हुए । इनका विवाह अजनाभ खंड में इन्द्र की पुत्री जयंती से हुआ । इन्हीं का पुत्र भरत हुआ जिससे भारतवर्ष का नाम भारत पडा ।
उपरोक्त प्रसंग से यह स्पष्ट हो गया है कि आदिनाथ ऋषभदेव की जन्मस्थली मेरु मंदार ही है । चंपानगर , भागलपुर के जैनमंदिर में आदिनाथ ऋषभदेव की खडगासन प्रतिमा व काले पाषाण पदमासन प्रतिमाएं विश्वकर्मा द्वारा निर्मित है । साथ ही यहां चौबीसों तीर्थकरों की चरण पादुकाएं भी है ।
अत: जैन दर्शनों के अनुसार सभी तीर्थकरों की जन्मस्थली अयोध्या मानी गई है , जो यहीं चंपानगर से लेकर मंदार क्षेत्र तक रही है ।
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श्रावस्ती की खोज :
अंगदेश में श्रावस्ती नगरी बसायी गई थी । इसका स्पष्ट प्रमाण पुराणों में भी मिलता है
" निर्मिता येन श्रावस्ती अंगदेशेयाधिप , शावतादवृहदश्वोड भूक्तनलाश्वतस्तताड भवत" ।
पद्मपुराण में भी यह स्पष्ट उल्लेख है कि "इक्षवाकुवंशियों महाराज ने अंगदेश में रहकर सदा पृथ्वी पर नीति एवं धर्मपूर्वक राज्य किया । युवनाश्व के पुत्र शाश्वत ने अंगदेश में रहकर श्रावस्तीपुरी बसायी " ।
उपरोक्त प्रमाणों से यह स्पष्ट होता है कि भगवान राम का जन्म अंगदेश में ही हुआ था । जहां रामायण की सारी घटनाएं घटित हुई ।
मेरी शीघ्र ही प्रकाशित होनेवाली पुस्तक
" राम और रावण की जन्मभूमि की खोज" में इसका विस्तृत वर्णन उपलब्ध है ।
(कृप्या पूरा पोस्ट पढें)
वायुपुराण , हरिवंशपुराण और ब्रह्माण्ड पुराण के अनुसार सांतवें मन्वन्तर के २४वें त्रेता में रामावतार सिद्ध होता है । चौबीसवें त्रेता के सांतवें मन्वन्तर में राम जन्म मानने पर राम का जन्म काल लगभग दो करोड वर्ष पूर्व ठहरता
है - " चतुर्विशे युगे विश्वामित्रपुर: सर : रामो दशरथस्यास्य पुत्र पद्मायतेक्षण :" ।
महाभारत के अनुसार त्रेता और द्वापर की संधि में श्रीरामावतार सिद्ध होता है-" संध्यशे समनुप्राप्ते त्रेताया द्वापरस्य च अहं दाशरथो रामों भविष्यामि जगत्पति:" ।।
उक्त रीति के अनुसार अनादिकाल से अयोध्या श्रीरामजन्मभूमि है । महर्षि वाल्मीकि ने अयोध्या को आदिराजा इक्षकवाकु की राजधानी माना है - " मनु प्रजापति: पूर्वमिक्षकवाकुश्च मनो: सूत: , तमिक्षकवाकुमयोध्याया राजान विधिपूर्वकम " । (वा० रा० १/७०/२१)
श्रीमदभागवत में यह स्पष्ट उल्लेख है कि "आदि राजा मनु का वास स्थान ब्रह्मावर्त है , जहाँ प्राची सरस्वती बहती है -" ब्रह्मावर्त मनो क्षेत्रे यत्र प्राची सरस्वती " ।
आगे यह भी स्पष्ट कहा गया है कि " मनु की राजधानी वहिर्ष्मतिपुरी थी " । यह वहिर्षमतिपुरी कहाँ थी ? इसका उत्तर हमें पद्मपुराण में मिल जाता है -" वहिर्णियोग्डमलदा मागधा मानवधारा "
अर्थात " अंगदेश में ही वहिर्ष्मतिपुरी थी " ।
नारदपुराण में यह स्पष्ट उल्लेख है कि "सरयू के तट पर मंदार के नीचे एक वेदिका बनी हुई है और उसके ऊपर एक कमल का आसन बिछा हुआ है , जिस पर श्याम वर्ण वाले श्रीराम वीरासन मुद्रा में बैठे हैं , उनका दाहिना हाथ ज्ञानमुद्राओं से विभूषित है । उन्होनें वायें ऊरु पर बायें हाथ रख छोडे हैं -" सरयूतीरे मन्दारवेदिका पंकजासेन श्यामां वीरासनासीन ज्ञान मुद्रोपशोभित:" (नारदपुराण, पूर्वभाग , तृतीयपाद)
इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि करोडों वर्ष पूर्व सरयू के तट पर मंदार अवस्थित था और सरयू के तट पर मंदार की चोटी के शिखर पर राम का अवतार हुआ । अभी भी मंदार (बौंसीं, बांका, बिहार) के शिखर पर भगवान राम के चरण चिन्ह एवं गर्भगृह को देखा जा सकता है । जैनियों ने अभी इस स्थान पर वासुपूज्य की प्रतिमा स्थापित कर दी है और राम के चरण चिन्ह को वासुपूज्य का चरण चिन्ह मान लिया है ।
वाराहपुराण में भी यह स्पष्ट उल्लेख है कि "गंगा के दक्षिण तट पर विंध्य पर्वत के पिछले भाग में मेरा एक परम गुह्य एकांत स्थान है , जिसे मेरे प्रेमी भक्त "मंदार" के नाम से पुकारते हैं । वहीं श्रेता में "राम" नाम से प्रसिद्ध एक महान प्रतापी पुरुष का प्राक्टय होगा, वे वहाँ मेरे विग्रह (प्रतिमा) की स्थापना करेंगें , इसमें संदेह नहीं ।" स्मरण रहे वाराह की विशाल प्रतिमा मंदार क्षेत्र से प्राप्त हो चुकी है जो अभी भी भागलपुर संग्रहालय में उपेक्षित पडी हुई है ।
वाराहपुराण के इन तथ्यों से रामजन्मभूमि का स्पष्ट प्रमाण के साथ ही यह रहस्य भी खुलता है कि मूल स्वर्गगंगा भागलपुर वटेश्वर सुल्तानगंज की ही गंगा रही है । चूकिं रामावतार से आजतक गंगा मंदार के उत्तरी बाहों में प्रवाहमान बनी हुई है ।
स्कंदपुराण में जिस सरयू जल में स्नान करके पिण्डारक पूजन करने का निर्देश है तथा सरयू के तट पर अयोध्या की रक्षा के लिए नियुक्त योद्धा का वर्णन है , उस पिण्डारक स्थान को अभी भी मंदार के पूरब दक्षिण कोण पर स्थित पौडेया प्रखंड के पिण्डारक पहाड पर देख सकते हैं । जो गुफा, झरना और वनों से परिपूर्ण है ।यह पिण्डारक स्थान करोडों वर्ष पूर्व से आजतक सुरक्षित अपना अलग पहचान बनाये हुए है।
पुराणकथित तथा शास्त्र समर्थित इन ऐतिहासिक स्थानों की अनदेखी नहीं कर सकते । इसी पिण्डारक वन, पिण्डारक पहाड के पश्चिम में मंदार पर्वत पडता है ।
यही नहीं स्कंदपुराण के वैष्णवखण्ड के अयोध्या महात्मय के अनुसार " अयोध्या विष्णु के सुदर्शन चक्र पर बसी है ।" अभी भी विद्वान चिंतक मंदार पर्वत पर आकर विष्णु चक्र से विभूषित "चक्रावर्त महाकुण्ड" को देख सकते हैं ।इस चक्रावर्त कुण्ड का नाम "चक्रतीर्थ" है - " चक्रावर्त महाकुण्डम विष्णुश्क्रविभूषितम् । यत्र सनाहतो नित्यं शेषशायी जनार्दन:।।"
स्कंदपुराण वैष्णव खंड में उल्लेख है कि " ब्रह्माजी ने अयोध्या में ब्रह्मकुण्ड की स्थापना की थी । इसी प्रकार यहाँ भगवती सीता द्वारा निर्मित एक सीताकुंड भी है । जिसे भगवान श्रीराम ने वर देकर समस्त कामनाओं को पूर्ण करनेवाला बना दिया । इसमें स्नान करने से मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है ।अयोध्या में सहस्त्राधार से पूर्व स्वर्गद्वार है ।" अभी भी मंदार के चक्रतीर्थ से उत्तर पूरब नरसिंह गुफा के समीप आकाशगंगा, सीताकुंड और शंखकुंड नामक जलाशय है । "सीताकुंड" जलाशय बहुत ही बडा है जो प्राकृतिक जलाशय है । इसके उत्तर में विष्णुकुंड , रामकुंड, लक्ष्मणकुंड, पर्वत के मूलभाग से कुछ ऊपर अवस्थित है । शेषशायी विष्णु की मूर्ति राम, कृष्ण एवं बलराम तक के साक्ष्य हैं।
विष्णु व राम कृष्ण के चरण चिन्हों से विभूषित मंदराचल का कालिदास ने अपने सुप्रसिद्ध काव्य कुमारसंभवम में भी उल्लेख किया है -" पद्मनाभचरणड्किताश्मसु प्राप्तवत्स्वमृताविप्रेषोनवा :। मन्दरस्य कटकेषु चावसत्पार्वतीवदन पदकमषटपद:" ।।
(कुमारसंभवम , अष्टम सर्ग)
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विभिन्न पुराणों में कोशी का उल्लेख सप्रसंग हुआ है । यही कोशी" महानदी " के नाम से विख्यात है -" कौशिकीति समाख्याता प्रवृजेय महानदी " । इस कोशी को अभी भी नवगछिया से लेकर सहरसा, मधेपुरा , पूर्णिया आदि जिलोन में प्रवाहमान देखा जा सकता है जो बरसात के मौसम में समुद्र सा दृश्य उत्पन्न करती है ।
भारत के प्राचीन भूगोल, "पुराणों के भुवनकोष" नामक अध्याय , कनिंघम का प्राचीन भूगोल तथा नंदलाल दे का प्राचीन तथा मध्यकालीन भारत के भौगोलिक कोश आदि ने एक स्वर से "कोशी नदियों के प्रदेश में प्राचीन काल में कोशल, वैशाली, विदेह आदि राज्यों तथा उनके मरण होने पर मल्ल तथा बज्जिसंघ के गणों की स्थापना हुई थी" का उल्लेख किया है ।
महाभारत के वनपर्व में कौशिकी प्रसंग का वर्णन है । इसमें कहा गया है कि " कोशी के तट पर कश्यप ऋषि के वंशज विभाण्डक ऋषि का आश्रम था । उसी विभाण्डक का पुत्र "श्रृंगी" ऋषि था । जो बडा भारी तपस्वी और संयतेन्द्रिय था । जिसने राजा दशरथ के लिए पुत्रेष्टि यज्ञ करवाया था । " अभी भी बिहार के मधेपुरा (कोशी क्षेत्र) में सिंहश्वेरनाथ मंदिर प्रसिद्ध है जो अत्यंत प्राचीन है । इसे श्रृंगेश्वर धाम भी कहा जाता है । भगवान विष्णु ने साक्षात इसका निर्माण करवाया था ।
पुराणों में भी यह स्पष्ट उल्लेख है कि " श्रृंगी ऋषि का आश्रम अंगदेश के कोशी तट पर अवस्थित था । "
महाभारत में यह भी स्पष्ट कर दिया गया है कि " विश्वामित्र का आश्रम भी कौशिकी तट पर स्थित था ।" इस स्थान को गंगा , यमुना , सरयू के निकट बताया गया है । स्मरण रहे कि विश्वामित्र राम के गुरु थे ।
कालिदास के काव्य "कुमारसंभवम में कोशिकी तट को इंद्र, विष्णु, ब्रह्मा और शिव देवताओं के पारस्परिक मिलन का पूर्व निर्दिष्ट स्थल बताते हुए लिखा गया है कि " कौशिकी तट पर साक्षात भगवान का निवास है।" अभी भी इन क्षेत्रों में वरुणेश्वर महादेव एवं सिंहेश्वर महादेव का दुर्लभ शिवलिंग यहां मौजूद है ।
पौराणिक ग्रंथों के अनुसार "कौशिकी क्षेत्रों में कुशिकाश्रम , कौशिकी, चंपाकरण्य, ज्येष्टिल, कन्यासंवेद्य, निश्चिरा संगम , ताम्रारुण, नंदिनीकूप, कालिकासंगम, उर्वशीतीर्थ, कुंभकर्णाश्रम तथा कोकामुख आदि प्रसिद्ध तीर्थ थें ।
वाराहपुराण के अनुसार " जलबिन्दु, तंगकूट, अग्निसर, ब्रह्मसर, धेनुवट , धर्मोध्दव, कोटिवट, पापप्रमोचन, यम व्यसनक, मांतगाश्रम , वज्रभव, शुकरुद्र, बिष्णुतीर्थ, मतस्यशिला , वाराहतीर्थ , अग्निसत्यपद, इंद्रलोक , पंचशिख , वेदधारा , द्वादशादित्य कुंड , लोकपाल स्थल, स्थल कुंड , सोमगिरि, सोमाभिषेक आदि कौशिकी क्षेत्र में अवस्थित थे।
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वशिष्ठ की जन्मस्थली - अयोध्या के नरेश वशिष्ठ गोत्र से संबंधित थें । वशिष्ठ उनके वंशानुगत पुरोहित थें । भविष्यपुराण उत्तरपर्व में यह स्पष्ट उल्लेख है कि " मित्र और वरुण ने मंदराचल पर उर्वशी नामक अप्सरा से संपर्क स्थापित किया और अपना तेज (वीर्य) एक कुंभ में डालकर रख दिया , जिससे बाद में अगस्त्य जी और वशिष्ठ जी का जन्म हुआ । " स्मरण रहे वशिष्ठ राम के कुलगुरु थें , जिनके द्वारा स्थापित वृध्देश्वर महादेव (बूढानाथ, भागलपुर , बिहार) अभी भी भागलपुर क्षेत्र में स्थित है । इस मंदिर के तहखाने से मिले प्राचीन ताम्रपत्रों से इस सत्यता की पुष्टि होती है ।
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ऋषभदेव की जन्मस्थली और अयोध्या -
जैन ग्रंथों (विविधतीर्थकल्प) में अयोध्या को ऋषभ, अभिनंदन, सुमति, अनंत और अचलभानु इन मुनियों का जन्म स्थान माना है ।
पुराणों के अनुसार "नाभि ने संतान प्राप्ति के लिए मंदार की घाटी में यज्ञ किया । जिसके प्रभाव से ऋषभदेव जी का जन्म हुआ । ये दिगंबर मुनियों में सर्वश्रेष्ठ मुनि हुए । इनका विवाह अजनाभ खंड में इन्द्र की पुत्री जयंती से हुआ । इन्हीं का पुत्र भरत हुआ जिससे भारतवर्ष का नाम भारत पडा ।
उपरोक्त प्रसंग से यह स्पष्ट हो गया है कि आदिनाथ ऋषभदेव की जन्मस्थली मेरु मंदार ही है । चंपानगर , भागलपुर के जैनमंदिर में आदिनाथ ऋषभदेव की खडगासन प्रतिमा व काले पाषाण पदमासन प्रतिमाएं विश्वकर्मा द्वारा निर्मित है । साथ ही यहां चौबीसों तीर्थकरों की चरण पादुकाएं भी है ।
अत: जैन दर्शनों के अनुसार सभी तीर्थकरों की जन्मस्थली अयोध्या मानी गई है , जो यहीं चंपानगर से लेकर मंदार क्षेत्र तक रही है ।
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श्रावस्ती की खोज :
अंगदेश में श्रावस्ती नगरी बसायी गई थी । इसका स्पष्ट प्रमाण पुराणों में भी मिलता है
" निर्मिता येन श्रावस्ती अंगदेशेयाधिप , शावतादवृहदश्वोड भूक्तनलाश्वतस्तताड भवत" ।
पद्मपुराण में भी यह स्पष्ट उल्लेख है कि "इक्षवाकुवंशियों महाराज ने अंगदेश में रहकर सदा पृथ्वी पर नीति एवं धर्मपूर्वक राज्य किया । युवनाश्व के पुत्र शाश्वत ने अंगदेश में रहकर श्रावस्तीपुरी बसायी " ।
उपरोक्त प्रमाणों से यह स्पष्ट होता है कि भगवान राम का जन्म अंगदेश में ही हुआ था । जहां रामायण की सारी घटनाएं घटित हुई ।
मेरी शीघ्र ही प्रकाशित होनेवाली पुस्तक
" राम और रावण की जन्मभूमि की खोज" में इसका विस्तृत वर्णन उपलब्ध है ।
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