प्राचीन लंका की खोज और पहचान
रावण की मूल लंका की खोज- (कृपया पूरे पोस्ट को पढकर प्रतिकि्रया अवश्य दें) झारखंड के देवघर से 15 किलोमीटर की दूरी पर प्रकृति की गोद मेँ स्थित आर्थिक दृष्टि से कॉफी महत्वपूर्ण 2110 वर्गक एकड़ क्षेत्रफल और 25 वर्ग किलोमीटर की परिधि मेँ घिरा 2470 फूट उंची चोटीवाला त्रिकुट पर्वत है जो वर्तमान मेँ त्रिकुटी पहाड के नाम से जाना जाता है। यह वही पर्वत हे जो सृष्टि के आदि मेँ मंदार पर्वत (बौंसी, बिहार) के साथ उत्पन्न हुआ- " मन्दरं चरमं चैव त्रिकूट मुदयाचलम् ।अन्यांश्च पर्वतांश्चैव सृष्टिवान्वधानपि।।" इस पर्वत ने देवलोक सभ्यता ,असुर सभ्यता, स्वर्गपुरी की सभ्यता, मेरु सभ्यता, लंका सभ्यता आदि के साथ साथ मानव सभ्यता के विकास को विशेष रुप से प्रभावित कर उसे आदर्श स्वरुप प्रदान करने मेँ अहम भूमिका निभाई है। जब हम पौराणिक भूगोल के आधार पर इस पर्वत का भौगोलिक सर्वेक्षण करते हैं तो इसके पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण के ऐतिहासिक पर्वतो को देख कर आस्चर्यचकित रह जाते हैं। साथ ही सहसा यह प्रश्न मन मेँ कौंधने लगता है कि क्या यह वही त्रिकूट पर्वत है जो कभी रावण की लंका रही थी? क्या इसी त्रिकूट के संबंध मेँ तुलसीदास ने मानस मेँ लिखा है कि "गिरी त्रिकूट एक सिंधु मझारी।विधि निर्मित दुर्गम अति भारी।।" यह यह यह शंका जनसाधारण मेँ उठना स्वाभाविक है कि तुलसीदास ने जिस त्रिकूट पर्वत स्थित लंका का वर्णन किया है वह लंका समुद्र के बीच( मझारी) मेँ बताया गया है, लेकिन यहाँ तो समुद्र है ही नहीं। इस संबंध मेँ कुछ ज्यादा कहने की जरुरत नहीँ है। क्योंकि अगर आप जब भी भागलपुर, दुमका और हंसडीहा- देवघर होते हुए त्रिकूट पर्वत पर पहुंचेंगे तो आपको यह पूर्ण रुप से विश्वास हो जाऐगा कि वास्तव मेँ इस भाग मेँ कभी समुद्र लहराता था। इन क्षेत्रोँ की भौगोलिक परिक्रमा करने पर आप देखेंगे कि वेद वर्णित तथा पुराण समर्थित अनेको पर्वत यहाँ स्थित हैं, जिनका संबंध त्रिकुट पहाड से रहा है। इन पर्वतो मेँ मेनका, माली,वासुकी, कैलाश घाटी , सुमाली, बाली, हनुमान, नंदन, केसरी आदि प्रमुख हैं। इनके अतिरिक्त देवघर के पातालडीह, दुमका के रावणेश्वर प्रखंड , तपोवन, हरिलाजोडी, रावणाजोर आदि कई ऐसे स्थल हैं जिनका संबंध रावण की लंका त्रिकूट पर्वत से रहा है। इन पर्वतो एवं स्थलों के ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व को इस क्षेत्र के भ्रमण द्वारा ही जाना पहचाना जा सकता है। इस सत्र की नदियो मे मयूराक्षी, अजयावती, वडवा, चंद्रभागा आदि प्रमुख हैं जो समुद्र सा दृश्य उपस्थित करती है। बाल्मीकि रामायण मेँ जोर देकर कहा गया है कि "त्रिकुटस्य तटे लंका सि्थत:। गिरिमूर्धिन सि्थता लंका"।। अर्थात "त्रिकूट पर्वत के शिखर पर लंका है।" नारेदंय पर्वतं वान्यं कृत्रिम च चतुविर्धम"- अर्थात लंका के चारो ओर नदी, पर्वत, वन और कृत्रिम ये चार प्रकार के दुर्ग हैं। "सि्थता पारे समुद्रस्य....दूरा पारस्थ राघव ।" अर्थात "वह बहुत दूर तक फैले हुए समुद्र के दक्षिण किनारे बसी हुई है।" प्राचीनकाल मेँ यह त्रिकूट पर्वत मालद्वीप, शंखद्वीप, कुशद्वीप, वाराहद्वीप के बीच अंगद्वीप( अंगदेश) मेँ स्थित था। साथ ही यह चारोँ ओर समुद्र से घिरा हुआ था। इन द्वीपों की पहचान मेँ विद्वानोँ ने भयंकर भूलेँ की है। इसलिए अबतक का इतिहास अधूरा ही रहा है। त्रिकूट पर्वत पर दुर्गा, शिव एवं महाकाल भैरव की प्राचीन प्रस्तर मूर्तियां सहित छोटी -छोटी आठ पर्वत चट्टान हनुमान चोटी, रावण गुफा, विजया बांध, समतल मैदान, पातालकुआँ, रावण की कुलदेवी कुंभका देवी की प्रतिमा, वैष्णो देवी की गुफा, रावणाजोर आदि सृष्टि के इतिहास के साक्ष्य हैं। पर्वत पर पाताल कुआँ एवम पातालपुरी साक्ष्य है, जहाँ से रावण अन्य जनपदों के साथ संपर्क स्थापित करता था। इसी पातालपुरी मेँ रावण का भाई अहिरावण रहता था जहाँ हनुमान ने जाकर राम लक्ष्मण की रक्षा की थी। एक चट्टान की दरार मेँ हनुमान जी का चित्र अभी भी यहाँ देखा जा सकता है। इसके अतिरिक्त कई रहस्यमयी गुफाएँ यहाँ मोजूद है। जहाँ जाना असंभव है। साथ ही चोटी पर कुआँ, झरना आदि का होना यहाँ सभ्यता बसने का पुष्ट प्रमाण प्रस्तुत करता है । इस त्रिकूट पर्वत पर अभी भी रामायण मेँ वर्णित औषधियोँ को देखा जा सकता है जिनमें संजीवनी बूटी, रामदतवन, इंद्रजौ, कनेर, त्रियाल, मुचुलिन्द, त्रियंग, पिप्पली, अशोक, अर्जुन ,आदि विशेष रुप से प्रमुख हैं जो आदि लंका के इतिहास का साक्षय है। इसके अतिरिक्त सैकडों प्रमाण मेरे पास मौजूद है जिससे यह साबित होता है कि रावण की मूल लंका अंगदेश में सिथत थी।
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