क्या झारखंड में स्थित थी मूल द्वारिका
मूल द्वारिका की खोज और पहचान - भगवान श्रीकृष्ण की द्वारिका की खोज भूगर्भ वेज्ञानिकों एवम पुराविदों द्वारा समुद्र के बीच जगह जगह की जा रही है। पता नहीँ वे किस आधार पर द्वारिका की पहचान समुद्र मेँ देखना चाहते हैं। पहले तो उन्हें यह खोज कर लेना चाहिए था कि महाभारत कालीन द्वारिका की भोगोलिक स्थिति क्या थी? जिस समय द्वारिका को बसाया गया था उस समय समुद्र की स्थिति क्या थी और इस संबंध मेँ पौराणिक ग्रंथ क्या कहते हैं? मूल सभ्यता के विकास की कहानी, सांस्कृतिक मूल्य और चिंतन चाहे अलग -अलग ढंग से प्रस्तुत की गई हो लेकिन मेरे बिगत चालीस वर्षोँ के अनुसंधान कार्योँ से यह स्पष्ट हो गया है कि संसार का सबसे प्राचीनतम स्थल अंगदेश रहा है। जहाँ महाभारतकालीन द्वारिका का इतिहास कैद है। महाभारत में द्वारावती की पहचान बताते हुए कहा गया है कि "वहाँ पास मेँ रैवतक नाम से प्रसिद्ध पर्वत था जिसके समीप ही राजा रैवत की विहार भूमि थी जिसका नाम द्वारावती था। वह भूमि चौकोर थी। कृष्ण ने वही द्वारिका बसाने का विचार किया था ।"श्रीकृष्ण ने जिस द्वारावती को देखा था वह आज भी इसी नाम से अपनी पहचान बनाए विद्यमान है। अभी भी द्वारावती नदी को मलूटी से रामपुरहाट (तारापीठ) मेँ प्रवाहमान देखा जा सकता है। महाभारत हरिवंश पुराण मेँ स्पष्ट उल्लेख है कि" द्वारिकापुरी पूर्व दिशा मेँ रेवतक पर्वत की तलहटी मेँ बसाई गई थी- वभौ रैवतक: शैलो रम्यसानु....पूर्वस्यां दिशि लक्ष्मीवान मणिकांचनतोरण"। आगे कहा गया है कि "वह रेवतक पर्वत कुश स्थली मेँ था- देव यास्यामि नगरीं रैवतस्य कुशस्थलीम।रैवतं च गिरि रम्यं नंदनप्रतिमं वनम"। कुशद्वीप मेँ ही मंदार पर्वत की स्थिति बताई गई है तथा रेवतक पर्वत और केशरी पर्वत की शाकद्वीप मेँ-"कुशेशयो हरिश्चाथ मन्दर: सप्तपर्वता:। उदयो रैवतश्चैव केशरी चेति पर्वता:।।" इन सारे पर्वतो को मंदार चेत्र से लेकर मलूटी शिकारीपाड़ा क्षेत्र मेँ अभी भी देखा जा सकता है। हंसडीहा एवं गोड्डा के बीच केसरी पहाड़, जामामोड़ (दुमका) में हरिमोरा पहाड़(हरि पर्वत), गोड्डा जिले मेँ कुशेश्वर पहाड(कुशद्वीप) तथा पाकुड़ (झारखंड) मेँ हिरण्य पर्वत मूल द्वारिका के पर्वतो के साक्ष्य हैं। यह पर्वत कन्दराओं, झरनो एवं दुर्लभ जानवरो से अभी भी भरा हुआ है। द्वारिका पुरी को अगाध खाईयो से घिरा हुआ तथा चारो ओर पहाडोँ एवं वनों से आच्छादित बताया गया है। द्वारिका की लंबाई चौडाई सहित इसका विस्तार 12 योजन से 96 योजन तक बताई गई है। जिसमेँ मंदार वन, चैतरथ वन, नंदन वन, मधुवन आदि शामिल थें। अभी भी शिकारीपाड़ा के पर्वतीय घाटियोँ मेँ द्वारका के दारुक वन, विश्राम वन आदि साक्ष्य रुप मेँ मौजूद है। विष्णु पुराण मेँ इस रहस्य को खोला गया है कि "बलराम रेवतोद्यान मेँ रेवती तथा अन्य रमणियों के साथ मंदराचल पर रमण और मद्यपान कर रहे थें - "एकदा रैवतोद्याने पयौपान हलायुध:, रेवती च महाभागा तथेवान्या वरसित्रय:।। रेमे यदुकुल श्रेष्ठ: कुबेर इव मन्दरे।" इससे यह स्पष्ट होता है कि जिस समय राजा रैवत का वैभव था उसी समय मंदार का क्षेत्र रैवत के अंदर आ गया इसी पर्वत को महाभारत काल मेँ रैवतक पर्वत कहा गया। इसी नाम से रैवतोद्यान हुआ। मंदराचल का इतिहास सृष्टि के आदि पर्वत से प्रारंभ होता है और इसी पर्वत के 48 कोस तक कभी बैकुंठपुरी एवं इंद्रपुरी आदि समय समय पर बसाई गई थी। राजमहल के पहाडी क्षेत्रों में कुंजबना पहाड, कुंजबना नदी, अलका पहाड (जहाँ इंद्र की अलकापुरी थी) आदि द्वारिका के मूल साक्षय हैं। भगवान श्रीकृष्ण और बलराम के साक्ष्य यहीँ पर अवस्थित गदेश्वर पहाड पर अभी भी देखा जा सकता है। इस पहाड पर बलराम के गदे का चिन्ह अंकित है जिस लोग पत्ते का चिन्ह समझ रहे हैं। बलभद्र पहाड (साहिबगंज ,झारखंड) बलराम का जीता जागता इतिहास प्रस्तुत करता है। वही गंगा के तट पर स्थित राजमहल के कन्हेया स्थान मेँ भगवान श्रीकृष्ण के चरण चिन्ह को भी स्पष्ट रुप से देखा जा सकता है। यहाँ के लंबे चौड़े पहाड़ी क्षेत्रोँ की बार बार परिशीलन करने एवं पौराणिक तथ्यों के मिलान करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि द्वारिका इसी प्राचीन बिहार के पूर्व विभागोँ मेँ अवस्थिति थी। पश्चिम में द्वारका की स्थापना शंकराचार्य द्वारा कराया गया था ।और प्राचीन द्वारिका भगवान विश्वकर्मा द्वारा निर्मित थी। अभी भी कहलगाँव में महाभारतकालीन दुर्वासा पहाड, गोवर्धन पर्वत आदि साक्षय रुप में मौजूद है। विशेष जानकारी के लिए कृपया मेरे शोध ग्रंथों को देखें।https://m.facebook.com/photo.php?fbid=295717787218617&id=100003411950332&set=a.100686946721703
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